डॉलर को क्या प्रभावित करता है

Rupee Dollar Rate: कभी मजबूत तो कभी हो जाता है कमजोर, आपको पता है अपने रुपये का मूल्य कौन तय करता है?
इन दिनों अमेरिकी डॉलर (US Dollar) के मुकाबले रुपये के मूल्य (Rupee Value) में भारी उतार-चढ़ाव देखी जा रही है। कभी रुपया डॉलर के सामने कमजोर हो जाता है तो कभी इसकी सेहत में सुधार हो जाता है। आपको पता है कि इसके पीछे कौन से कारक जिम्मेदार होते हैं।
Rupee Dollar Rate: कभी मजबूत तो कभी हो जाता है कमजोर, आपको पता है अपने रुपये का मूल्य कौन तय करता है?
1991 तक मजबूत था रुपया
पुराने समय की कुछ यादों को ताजा करते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि साल 1991 में भारतीय रुपये का मूल्य एक अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 22.74 रुपये था। दस साल बाद साल 2001 में रुपये की वैल्यू एक अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 47.19 रुपये थी। लेकिन अक्टूबर 2022 में रुपया डॉलर के मुकाबले 83.26 रुपये के सर्वकालिक उच्च स्तर को छू गया।
रुपया कमजोर हो रहा है या डॉलर मजबूत
अभी कुछ समय पहले रुपये के मूल्य को लेकर भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की एक टिप्पणी ने खूब सुर्खियां बटोरी थी। उन्होंने कहा था कि, 'वे रुपये में गिरावट नहीं, बल्कि इसे डॉलर की मजबूती के रूप में देखती हैं, डॉलर लगातार मजबूत हो रहा है’। तो क्या डॉलर ही हमारे रुपये की कीमत तय करता है? हां, कुछ हद तक। लेकिन जैसा कि हमने पहले कहा था, इसके पीछे एक साइंस है। दरअसल, भारतीय रुपये की कीमत तय करने के पीछे कई फैक्टर काम करते हैं।
महत्वपूर्ण होता है ब्याज दर
जब आपको पता चले कि किसी इंस्ट्रूमेंट की ब्याज दर हाल ही में बढ़ी है, तो आप क्या करेंगे? जाहिर सी बात है आप अपना सरप्लस मनी (surplus money) को एक असेट क्लास से निकाल लेंगे। और, अपने धन को वहां जमा करेंगे जहां अधिकतम सुनिश्चित रिटर्न मिलेगा। इसी तरह का कॉन्सेप्ट यहां है। यूएस फेड लगातार ब्याज दरों में बढ़ोतरी कर रहा है, जिससे अमेरिकी डॉलर एक आकर्षक निवेश विकल्प बन गया है। दुनिया भर से बड़े निवेशक दूसरे देशों से पैसा निकाल रहे हैं और अमेरिका में निवेश कर रहे हैं। जिससे डॉलर पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हो रहा है।
आरबीई क्यों बढ़ा रहा है ब्याज दर
अभी आपने जाना कि अमेरिकी फेड रिजर्व (US Fed Reserve) लगातार ब्याज दर में बढ़ोतरी कर रहा है। इसलिए दुनिया भर से पैसा वहां जमा हो रहा है। यदि किसी अन्य देश को उससे मुकाबला करना है तो उसे भी ब्याज दर में बढ़ोतरी करनी होगी। इसलिए RBI को भी दरों में बढ़ोतरी करनी पड़ रही है। ताकि निवेशक हमारे देश से धन न निकालें।
अंतरराष्ट्रीय व्यापार
चूंकि बड़े निवेशक अपना जमा निकाल कर अमेरिका में निवेश कर रहे हैं। इसलिए, दुनिया भर के देशों में डॉलर की कमी होगी। इसका नतीजा हाई डिमांड के रूप में देखने को मिलेगा। यदि किसी देश में निर्यात ज्यादा और आयात कम होता है, तो उस देश के अधिशेष डॉलर जमा (surplus dollar deposits) में बढ़ोतरी होगी। इसलिए उन्हें बाजार से डॉलर खरीदने के लिए अपनी मुद्रा खर्च नहीं करनी पड़ेगी। इससे अमेरिकी डॉलर के मुकाबले उस देश की करेंसी की वैल्यू बढ़ेगी।
भारत के साथ ऐसा नहीं है
भारत का विदेशी व्यापार अपने पक्ष में नहीं है। हम जितनी रकम डॉलर को क्या प्रभावित करता है का निर्यात करते हैं, उससे ज्यादा रकम का आयात कर लेते हैं। आयात बिलों के निपटान के लिए हमारी करेंसी अमेरिकी डॉलर पर निर्भर है। यदि हम दुनिया में डॉलर की कमी के बीच डॉलर खरीदते हैं तो हमें अमेरिकी डॉलर खरीदने के लिए अपने भारतीय रुपये का ज्यादा भुगतान करना होगा। इससे देश की करेंसी पर और ज्यादा दबाव बढ़ता है।
मौद्रिक नीति का भी पड़ता है असर
रिजर्व बैंक के मौद्रिक नीति की वजह से आपके 500 रुपये के नोट का मूल्य हर दिन बदलता रहता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक रुपये की मांग और आपूर्ति पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए विभिन्न मुद्राओं को खरीदता और बेचता है। ताकि रुपये का मूल्य स्थिर रहे। इसके अलावा रेपो रेट या लिक्विडिटी रेश्यो जैसे मौद्रिक नीति परिवर्तन भी रुपये के मूल्य को प्रभावित करते हैं।
रुपये के मूल्य में बदलाव का आप पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
यदि आप विदेश में पढ़ाई की योजना बना रहे हैं, तो रुपये के मूल्य में गिरावट के साथ आपको उच्च शिक्षण शुल्क देना होगा। साथ ही विदेश में रहने की आपकी लागत भी बढ़ जाएगी।
कैलेंडर वर्ष 2022 में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये में 9.8% की गिरावट आई। ऐसे में हमारा आयात और महंगा होगा।
जब भी रुपये का मूल्य गिरता है, तो इसका असर आम आदमी की जेब पर भी पड़ता है। यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूप से देश के नागरिकों प्रभावित करता है।
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कौन तय करता है डॉलर के मुकाबले रुपये का एक्सचेंज रेट, क्या कभी डॉलर के बराबर थी भारतीय करेंसी?
डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया आजादी के बाद लगातार नीचे गिरा. ऐसा माना जाता है कि 1947 में भारतीय रुपये और अमेरिकी डॉलर क . अधिक पढ़ें
- News18Hindi
- Last Updated : October 15, 2022, 09:21 IST
हाइलाइट्स
एक करेंसी के मुकाबले दूसरी करेंसी की वैल्यू एक्सचेंज रेट द्वारा तय होती है.
अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये का एक्सचेंज रेट फिलहाल 82.36 है.
भारत विभिन्न विदेशी मुद्राओं के लिए फ्लोटिंग एक्सचेंज रेट फॉलो करता है.
नई दिल्ली. अमेरिकी डॉलर ($) के मुकाबले भारतीय रुपया (₹) आए दिन नया न्यूनतम स्तर छू रहा है. फिलहाल यह 1 डॉलर के मुकाबले 82.367 रुपये पर है. शुक्रवार को यह 0.24 फीसदी की बढ़त के साथ बंद हुआ था. कोई करेंसी किसी दूसरे देश की करेंसी के मुकाबले कितनी मजबूत या कमजोर है यह एक्सचेंज रेट से पता चलता है. भारतीय रुपये और डॉलर की तुलना करें तो अगर आप 82.36 रुपये लेकर डॉलर में कन्वर्ट करने जाते हैं तो आपको केवल 1 डॉलर मिलेगा. यही एक्सचेंज रेट है.
अब सवाल उठता है कि एक्सचेंज रेट तय कौन करता है. सबसे पहला ख्याल दिमाग में भारतीय रिजर्व बैंक का आता है, लेकिन ऐसा नहीं है. दरअसल, भारतीय रुपये का एक्सचेंज रेट कोई एक संस्थान या संगठन नहीं करता है. केवल डॉलर ही नहीं अन्य विदेशी मुद्राओं के मुकाबले भी भारतीय रुपये का एक्सचेंज रेट कई बाजार आधारित फैक्टर्स द्वारा तय होता है. गौरतलब है कि 1990 से पहले यह काम आरबीआई ही करता था. तब भारत एक फिक्स्ड एक्सचेंज रेट को फॉलो करता था. उस समय घरेलू करेंसी अमेरिकी डॉलर और अन्य मुद्राओं के एक बास्केट के साथ पैग्ड थी. पैग होने का मतलब है कि दूसरी करेंसी के मुकाबले अपनी करेंसी को एक तय सीमा बांध दिया जाएगा और उसमें गिरावट या तेजी उसी दायरे में रहेगी. इस सिस्टम में आरबीआई या केंद्र सरकार अपनी करेंसी का एक्सचेंज रेट तय करते हैं.
क्यों बंद हुई वह प्रणाली?
जब कोई देश अपनी करेंसी को किसी दूसरे की करेंसी के साथ संलग्न (पैग) कर देता है तो वह अपनी आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप स्वायत्त रूप से मौद्रिक नीति नहीं बना पाता. ये एक बड़ा कारण रहा जिसकी वजह से पुरानी एक्सचेंज रेट प्रणाली को बंद कर दिया गया. इसके अलावा 1992 में भारतीय रुपये में तेज गिरावट देखने को मिली जिसकी वजह से लोगों ने डॉलर खरीदना शुरू कर दिया. इससे आरबीआई के पास डॉलर लगभग खत्म हो गए और उसके लिए रुपये को पैग करना बहुत मुश्किल हो गया. इसी दौरान कई आर्थिक बदलाव हुए और भारत ने फ्लोटिंग एक्सचेंज रेट को अपना लिया.
अब कैसे तय होता एक्सचेंज रेट?
इसका सबसे बड़ा कारक मांग और आपूर्ति है. हालांकि इसके अलावा भी कुछ कारक हैं लेकिन पहले हम इस पर बात करेंगे. जैसे-जैसे किसी वस्तु की मांग बढ़ती है तो स्वाभाविक तौर पर उसका रेट भी बढ़ने लगता है. यही हाल करेंसी का भी है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में व्यापार के लिए डॉलर की मांग जितनी बढ़ती है उसका मूल्य भी उतना ऊपर जाता है. इसे फ्लोटिंग एक्सचेंज रेट कहा जाता है. रुपये के संदर्भ में इसे ऐसे समझ सकते हैं. भारत अभी जितने मूल्या का माल यूएस को निर्यात करता है उससे अधिक का आयात करता है. व्यापारियों को यूएस से सामान खरीदने के लिए डॉलर में भुगतान करना होता है और वह रुपये से डॉलर खरीदते हैं. इससे डॉलर की डिमांड बढ़ती है और साथ ही साथ उसका मूल्य भी ऊपर की ओर जाता है. इसके अलावा महंगाई, ब्याज दर, चालू खाता घाटा, सोने का आयात-निर्यात और सार्वजनिक कर्ज कुछ ऐसे कारक हैं जो एक्सचेंज रेट को प्रभावित करते हैं.
एक ही देश के बैंकों में अलग-अलग एक्सचेंज रेट क्यों?
आप जब कहीं विदेश यात्रा पर जाते हैं तो आपको वहां की करेंसी की जरूरत होती है और आप भारतीय रुपया देकर उसे खरीदते हैं. यहां बैंक या कोई अन्य वित्तीय संस्थान आपको एक्सचेंज रेट के अनुसार दूसरी करेंसी मुहैया कराता है. लेकिन ये एक ही देश में अलग-अलग हो सकती हैं. इसके पीछे बैंकों की अलग-अलग नीतियां होती हैं जिसके तहत वह करेंसी और अंतरराष्ट्रीय मार्केट में तय दामों पर खरीदने व बेचने के लिए स्वतंत्र होते हैं. साथ ही बैंकों के सर्विस चार्जेस भी अलग-अलग होते हैं और उसका प्रभाव भी एक्सचेंज के बाद आपको मिलने वाली राशि पर पड़ता है.
क्या डॉलर और रुपया कभी एक समान थे?
ऐसा माना जाता है कि 1947 में भारत रुपये की वैल्यू अमेरिकी डॉलर के बराबर थी. यानी 1 डॉलर और 1 रुपया समान थे. हालांकि, आजादी से पहले तक भारतीय रुपया ब्रिटिश पाउंड के साथ पैग्ड (इसका मतलब लेख में ऊपर बताया है गया है) था. तब 1 पाउंड की वैल्यू 13 रुपये थी. 1 पाउंड की वैल्यू 2.73 डॉलर के बराबर थी. इस तरह देखा जाए तो 1947 में 1 डॉलर 4.76 रुपये के बराबर था. यानी तब वैल्यू बराबर नहीं थी. आजादी के बाद लगातार रुपये की वैल्यू में गिरावट दर्ज की गई.
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रुपये का गिरना दोहरे घाटे को प्रभावित करेगा लेकिन क्यों घबराने की जरूरत नहीं है
भारत की वृहद अर्थव्यवस्था की बुनियाद मजबूत बनी हुई है. आगे जींसों की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में नरमी इस गिरावट की रफ्तार को कम करने में मददगार होगी.
चित्रण: प्रज्ञा घोष | दिप्रिंट
इस सप्ताह रुपये ने पहली बार 80 प्रति डॉलर की सीमा पार कर ली. रुपये में यह गिरावट मुख्यत: भू-राजनीतिक संघर्षों, जींसों की कीमतों में वृद्धि और जोखिम से विदेशी निवेशकों के परहेज का नतीजा है. इन सबके चलते डॉलर मजबूत हुआ है.
रुपये में यह गिरावट सरकारी वित्त व्यवस्था को झटका देगी और चालू खाता घाटे को बढ़ा देगी लेकिन भारत की वृहद अर्थव्यवस्था की बुनियाद मजबूत बनी हुई है इसलिए यह घबराने की वजह नहीं बनेगी. यह 2013 के ‘टेपर टैंट्रम’ प्रकरण के विपरीत है, जब अपने ऊंचे चालू खाता घाटे और विदेशी पूंजी पर निर्भरता के कारण भारत दुनिया की सबसे कुप्रभावित अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हो गया था.
आगे चलकर जींसों की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में नरमी इस गिरावट की रफ्तार को कम करने में मददगार होगी.
रुपये की गिरावट और डॉलर की मजबूती
अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने दरों में जो तीखी वृद्धि की है उससे रुपये पर दबाव बढ़ा है क्योंकि अमेरिका और भारत में ब्याज दरों का अंतर घट गया है. अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने पिछली बैठक के बाद 75 बेसिस प्वाइंट की वृद्धि कर दी. जून में अमेरिकी मुद्रास्फीति की उम्मीद से ज्यादा ऊंचे आंकड़े ने अमेरिकी फेडरल रिजर्व की अगली बैठक के बाद दरों में 75 या 100 बेसिस प्वाइंट की वृद्धि की संभावना बढ़ा दी है.
इस तीखी वृद्धि के कारण विदेशी संस्थागत निवेशकों की ओर से बिक्री में तेजी आ जाती है और इससे रुपया और कमजोर होता है. 2022 में अब तक विदेशी निवेशकों ने 30 अरब डॉलर मूल्य की भारतीय परिसंपत्तियों की बिक्री कर डाली है.
रुपये की गिरावट डॉलर सूचकांक की मजबूती से जुड़ी है. डॉलर सूचकांक छह मुद्राओं में डॉलर की ताकत का आकलन करता है. इस साल के शुरू में यह सूचकांक 96 था, जो जुलाई के मध्य में 12 प्रतिशत से ज्यादा बढ़कर 108 पर पहुंच गया. डॉलर सूचकांक में ताजा वृद्धि 40 साल में हुई रिकॉर्ड मुद्रास्फीति और अमेरिकी बॉन्ड पर लाभ में वृद्धि के कारण हुई है. अमेरिकी बॉन्ड पर लाभ में वृद्धि के कारण डॉलर की मांग बढ़ जाती है.
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दोहरे घाटे की समस्या
रुपये में गिरावट भारत के दोहरे घाटे को प्रभावित करेगा. कच्चे तेल, जींसों और खाद की कीमतों में वृद्धि ने आयात के बिल में वृद्धि कर दी है और कमजोर रुपया आयात के बोझ को और भारी कर देगा और सब्सिडी के बोझ को भी बढ़ा देगा.
सरकार ने खाद की ऊंची कीमत का बोझ किसानों पर नहीं डालने का फैसला किया है. इस कारण खाद सब्सिडी 2.5 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच सकती है. पेट्रोल और डीजल पर ड्यूटी में कटौती से 85,000 करोड़ रुपए का राजस्व घाटा हो सकता है. लेकिन मुद्रास्फीति के चलते नाममात्र की ऊंची जीडीपी वित्तीय घाटे को सीमित कर सकती है.
रुपये में लगातार गिरावट आयातों पर दबाव डालेगी, जिसके कारण चालू खाता घाटा (सीएडी) बड़ा हो जाएगा. सेवाओं के निर्यात में भारत सामान के निर्यात से ज्यादा प्रतिस्पर्द्धी है इसलिए घाटे में गिरावट मामूली होगी.
मुद्रास्फीति का बुरा दौर खत्म
पिछले कुछ दिनों से जींसों और कच्चे तेल की कीमतों में सुधार हुआ है. संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के खाद्य सामग्री कीमत सूचकांक द्वारा मापी गई वैश्विक कीमतों में जून में लगातार तीसरी बार गिरावट आई. खासकर खाद्य तेल के उप-सूचकांक में मार्च और जून के बीच 15 फीसदी की गिरावट आई.
औद्योगिक धातुओं की कीमतें मार्च में शिखर छूने के बाद अब गिरी हैं. कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतें भी मंडी की आशंकाओं की वजह से जुलाई के शुरू से नरम हुई हैं. आयातों की कीमतों में लगातार नरमी भारत के ‘सीएडी’ के लिए अच्छी खबर है. ‘सीएडी’ जिस हद तक काबू में रहेगा मुद्रा की कीमत में ज्यादा गिरावट नहीं होगी.
अमेरिकी फेडरल रिजर्व की आगामी पॉलिसी के तहत दरों में संभावित वृद्धि का बाजार ने हिसाब लगा लिया है. नतीजतन, एफआईआई भारतीय इक्विटीज़ को बेच रहे हैं लेकिन जुलाई में यह बिक्री घटी है. जुलाई में एफआईआई खरीदार भी बने हैं. जबकि ज़ोर रुपया और डॉलर की दरों पर है लेकिन पाउंड, यूरो, येन जैसी अहम मुद्राओं के मुकाबले रुपये की कीमत बढ़ी है. डॉलर के मामले में रुपये की गिरावट की दर दूसरी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राओं की इस दर से कम ही रही है.
रिजर्व बैंक का हस्तक्षेप
अल्पावधि के लिए रुपये की दिशा अमेरिकी फेडरल रिजर्व की अगली बैठक में दरों में वृद्धि के अनुपात से तय होगी. भारतीय रिजर्व बैंक रुपये की गिरावट को रोकने के लिए हस्तक्षेप करता रहा है. इस मकसद से उसने अपने भंडार में से करीब 50 अरब डॉलर बेच डाले हैं. लेकिन डॉलर जब मजबूत हो रहा है, उस हालात में रुपये का बचाव करना कठिन होगा. विदेशी कर्ज के बारे में रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़े बताते हैं कि 43 फीसदी विदेशी कर्ज की अवधि इस साल पूरी हो जाएगी. इसके कारण ज्यादा डॉलर की मांग होगी और यह जमा कोश के प्रबंधन के लिहाज से रिजर्व बैंक के लिए एक चुनौती होगी.
डॉलर की आवक बढ़ाने के लिए पूंजीगत नियंत्रणों का रिजर्व बैंक का ताजा फैसला एक सकारात्मक कदम है. अंतरराष्ट्रीय व्यापार रुपये में करने की इजाजत देने का ताजा फैसला अल्पकालिक तौर पर ज्यादा असर नहीं डालेगा. लेकिन मध्य या दीर्घ अवधि के लिए यह डॉलर की जगह रुपये की मांग की ओर ले जाएगा.
(राधिका पांडे डॉलर को क्या प्रभावित करता है नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
Explainer: 'रुपया गिर नहीं रहा- डॉलर मज़बूत हो रहा' वित्तमंत्री के इस बयान पर क्या कहते हैं आंकड़े और एक्सपर्ट?
भारतीय मुद्रा डॉलर के मुकाबले रिकॉर्ड निचले स्तर पर है.
अमेरिकी डॉलर इस समय करीब 22 साल के उच्चतम स्तर पर ट्रेडिंग कर रहा और इसके मुकाबले दुनियाभर की करेंसी बौनी नजर आ रही ह . अधिक पढ़ें
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- Last Updated : October 17, 2022, 17:35 IST
हाइलाइट्स
अमेरिकी डॉलर इस समय 22 साल के सबसे मजबूत स्थिति में है.
दुनियाभर में होने व्यापारिक लेनदेन में 40 फीसदी हिस्सेदारी डॉलर की रहती है.
अगर डॉलर में 10 फीसदी की मजबूती आई है तो महंगाई 1 फीसदी बढ़ जाएगी.
नई दिल्ली. वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले दिनों डॉलर के मुकाबले कमजोर होती भारतीय मुद्रा का बचाव करते हुए कहा था- ‘रुपया गिर नहीं रहा- डॉलर मज़बूत डॉलर को क्या प्रभावित करता है हो रहा’. उनके इस बयान के अलग-अलग मायने निकाले गए और विपक्ष ने रुपये की अनदेखी और बढ़ते आर्थिक दबाव को लेकर निशाना भी साधा था. हालांकि, वित्तमंत्री के बयान को बड़े कैनवास पर देखा जाए तो यह काफी हद तक सही भी नजर आता है.
दरअसल, अमेरिकी डॉलर में आई मजबूती को अगर सिर्फ भारतीय रुपये के परिपेक्ष्य में देखा जाए तो अधूरी तस्वीर ही सामने आती है. जरूरी है कि इसे अन्य देशों की मुद्राओं से भी तुलना करनी चाहिए और फिर यह देखा जाए कि क्या वाकई रुपया कमजोर हो रहा. एक तरह से देखा जाए तो रुपया कमजोर हो या डॉलर मजबूत, इसका असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर बखूबी पड़ेगा ही. लेकिन, हम वित्तमंत्री के बयानों का निहितार्थ हालिया आंकड़ों से निकालने की कोशिश करते हैं तो तस्वीर कुछ और ही नजर आती है. जनवरी से अब तक करीब 9 फीसदी गिरा है भारतीय रुपया.
क्या है डॉलर की असल मजबूती
अमेरिकी डॉलर इस समय 22 साल के सबसे मजबूत स्थिति में है, जो साल 2000 के बाद उसका उच्चतम स्तर है. डॉलर इसलिए भी ज्यादा मजबूत हो रहा, क्योंकि दुनियाभर में होने व्यापारिक लेनदेन में 40 फीसदी हिस्सेदारी डॉलर की रहती है. डॉलर की मजबूती की वजह से ही भारत सहित तमाम देश महंगाई से जूझ रहे हैं. ऐसा माना जाता है कि अगर डॉलर में 10 फीसदी की मजबूती आई है तो महंगाई 1 फीसदी बढ़ जाएगी. हालांकि, इस दौरान ग्लोबल ट्रेड में अमेरिका की हिस्सेदारी 12 फीसदी से घटकर 8 फीसदी रह गई है.
डॉलर के मुकाबले भारत की स्थिति
अगर डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा की स्थिति को देखा जाए तो साल 2022 में इसमें करीब 8.9 फीसदी की गिरावट दिखी है. 17 अक्तूबर, 2022 की सुबह डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा की कीमत 82.36 रुपये थी. कोरोनाकाल में यह 70 रुपये के आसपास टिकी रही. पिछले एक दशकी की बात करें तो भारतीय मुद्रा में करीब 29 रुपये की गिरावट आई है. साल 2012 में डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा 53.43 पर थी. इसे थामने के लिए आरबीआई को अपने रिजर्व का इस्तेमाल करना पड़ा और देश के विदेशी मुद्रा भंडार में इस साल करीब 100 अरब डॉलर की गिरावट आई.
अन्य बड़े देशों के हालात
अगर हम अमेरिकी डॉलर के मुकाबले दुनिया की अन्य बड़ी करेंसी को देखें तो भारत की स्थिति कहीं ज्यादा मजबूत दिखाई देती है. साल 2022 में डॉलर के मुकाबले पाकिस्तानी रुपया 26.17 फीसदी टूटा है, जबकि ब्रिटिश पाउंड 20.9 फीसदी नीचे आया है. जापानी मुद्रा येन भी 20.05 फीसदी टूट गई है जबकि यूरो 14.9 फीसदी और चाइनीज मुद्रा 11.16 फीसदी नीचे आई है. ऑस्ट्रेलियन डॉलर भी अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 10.4 फीसदी कमजोर हुआ है.
क्या कहते हैं एक्सपर्ट
कमोडिटी एक्सपर्ट और केडिया एडवाइजरी के डाइरेक्टर अजय केडिया ने वित्तमंत्री के बयान को बिलकुल सही ठहराया है. उन्होंने कहा कि अन्य देशों का ग्राफ देखें तो भारतीय मुद्रा काफी बेहतर स्थिति में है. हालांकि, एक साल में किसी मुद्रा के 9 फीसदी नीचे आने को हल्के में नहीं लिया जा सकता, लेकिन रुपये में आ रही गिरावट थामने के लिए की जा रही सरकार की कोशिशें सही रास्ते पर हैं और इसका बेहतर नतीजा भी दिखने लगा है.
50 साल में पहली बार बनी ऐसी गंभीर स्थिति
अजय केडिया का कहना है कि आज हम रुपये में कमजोरी की बात तो कर रहे हैं, लेकिन उसके पीछे के कारणों को बड़े कैनवास पर नहीं देख रहे. जहां तक मेरा मानना है कि पिछले 50 साल में ऐसा पहली बार हुआ है जब मुद्रा पर दबाव बनाने वाले चारों बड़े कारण एकसाथ सामने आए हैं. पहले कोविड-19 की वजह से पूरी दुनिया पर दबाव बना और सप्लाई चेन बुरी तरह प्रभावित हुई. दूसरी, इकोनॉमिक क्राइसिस आई और पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था गिर गई. तीसरी, रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध से छोटे-बड़े सभी देश प्रभावित हुए और चौथा, महंगाई थामने के लिए हर केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ा रहा है. इन चारों फैक्टर के एकसाथ आने से रुपया ही नहीं दुनियाभर की सभी मुद्राओं पर दबाव बना है.
क्या कदम उठा रही सरकार
भारतीय मुद्रा में सुधार लाने के लिए सरकार ने अपने स्तर से बड़े फैसले लिए हैं. इसके लिए सबसे जरूरी है कि निर्यात को बढ़ावा दिया जाए और आयात पर निर्भरता घटाई जाए. इस गणित को सॉल्व करने के लिए ही मोदी सरकार लगातार मेक इन इंडिया पर जोर दे रही, ताकि भारत दुनिया का निर्यात हब बन जाए. इसके लिए पहले कच्चे तेल पर खर्च करने को अमेरिका के खिलाफ जाकर रूस से आयात किया. जहां न सिर्फ सस्ता तेल मिला, बल्कि रुपये में भुगतान कर बड़ी बचत भी की. भारत सबसे ज्यादा सोने का आयात करता है और इस पर लगाम कसने के लिए ही सोने पर आयात शुल्क बढ़ा दिया. इसके अलावा खाद्य तेल पर आयात निर्भरता कम करने के लिए तिलहन फसलों पर एमएसपी बढ़ाई, जिसका असर बुआई रकबे में आए उछाल के रूप में देखा जा रहा.
डॉलर के मुकाबले कमजोर रुपये का कुछ फायदा भी मिला है. इससे भारत को निर्यात के नए अवसर मिले और नए बाजार भी खुले. यही कारण है कि चालू वित्तवर्ष में 400 अरब डॉलर के निर्यात लक्ष्य पार करने की संभावना भी दिख रही है. एक्सपर्ट का भी कहना है कि भारत जिस तरह से उत्पादन को बढ़ावा दे रहा जल्द ही सेमीकंडक्टर जैसे बड़े आयात वाले उत्पादों का भी निर्यात यहां से होने लगेगा. तब भारतीय मुद्रा पर डॉलर का ज्यादा असर होना भी बंद हो सकता है.
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